पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (From Bhakta to Maghaa ) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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Today, in common parlance, Bhadra is
taken to mean noble. Vedic literature indicates that Bhadra is a state opposite
to sin. The previous attempts to interpret vedic word Bhadra can be found on
website SAKSIVC.
Website
Iranian.com
traces the origin of English word Better in Sanskrit word Bhadra through Persian
word Behtar. Word bhadra has frequently appeared in vedic verses and Shri
Kaapaali Shaastri has tried to derive it’s true meaning on the basis of it’s
appearance in different verses. But this is not a successful attempt. The real
meaning can be grasped from Agni Puraana and Kathaasaritsaagara. Agni Puraana
states that a Bhadra type of palace is one which does not have a front or side
terrace . On the other hand, a JaiShree type of palace is one which does
not have the back terrace . Here the front and side terrace may mean those
disturbances which may appear at the start of one’s penances or during the
penances. This type of disturbances are well documented for the penances of Lord
Gautam Buddha in Buddhist literature. The disturbances at the start may be
frightening etc. The disturbances during the penances may be various types of
joys or achievements, siddhis etc. On the other hand, the absence of back
terrace in JaiShree palace may mean the absence of unconscious mind. There are
references in vedic literature where bhadra has been equated with Shree. One
Vedic verse states the descend of the horses of sun to the back state. In the
story of Kathaasaritsaagara, sage Kanva curses Bhadra and Shubha/auspicious to
become a boar and an elephant. Subsequently the two gain their original states
and then their dead bodies are converted into a sword and a shield.
The relation of Bhadra and Shree can also be applied for explanation of
the worship of lord Ganesha and goddess Lakshmi/Shree at Deepaavali festival.
The worship of the two together has yet remained an unsolved mystery. Here the
elephant – headed lord Ganesha may represent the state of Bhadra while Shree
is Shree. There are several references in vedic literature where one is supposed
to proceed to Shree from Bhadra state. But the procedure of converting Bhadra
into Shree seems to have been discussed only indirectly.
One puraanic story indicates that in Bhadra state, the eternal play of
dice in nature still remains predominant. One vedic mantra states that the
bird/omen should speak bhadra for us from everywhere and should speak pious from
inside. When the bird remains silent, it should be able to increase our wisdom.
From this statement it appears as if Bhadra is concerned only with the state of
outside/everywhere, when our senses are outwardly. But there are other verses
which contradict it and it has to be clearly decided.
Puraanic stories profusely discuss the character of Balabhadra, elder
brother of lord Krishna. It seems that in this word, Bala is symbolic of the
aura surrounding the body and the whole word may signify that this aura should
not be afflicted with sins, it should be Bhadra. Vedic mantras seem to discuss
the same fact with the mention of clothes of goddess Ushaa. The change of
clothes at the time of initiation has been stated to be a change from a state of
sin to a state of no – sin.
It appears that whatever fact has been expressed by the story of slaying
of a boar by king Vikramaaditya, the same fact has been expressed by the long
anecdote of disruption of the sacrifice of Daksha by Veerabhadra. In vedic and
puraanic language, a boar has been depicted as representative of sacrifice, the
yaga. Every body part of a sacrificial boar is made up of some vessel used in
the yaaga. The yaaga of Daksha is for increasing efficiency of an engine, of any
work in this world. But it is well know in science that efficiency can not be
100 percent. Some part of the work goes waste. This is called noise. Vedic
literature says that this noise is due to presence of sin. Therefore, the first
requirement for achievement of efficiency is to remove sin. The removal of sin
has been placed in west direction, achieving efficiency in south and to receive
primordial impulse for work in east. There are few references where Bhadra has
been placed in east.
भद्र टिप्पणी : लौकिक भाषा में भद्र शब्द भद्र पुरुष, सज्जन पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित है । इसी प्रकार वैदिक साहित्य में भी भद्र शब्द प्रकट होता है लेकिन कहीं भी स्पष्ट रूप से इस शब्द की निरुक्ति नहीं मिल पाती । अथर्ववेद १३.७.१४( १३.४.४२) मन्त्र से प्रतीत होता है कि पाप से मुक्ति ही भद्रता की प्राप्ति है । अथर्ववेद २०.२०.६ व २०.५७.९ में भद्र का स्थान पुर: और अक्ष का पश्चात् कहा गया है । पौराणिक साहित्य में इस शब्द की निरुक्ति के प्रयास किए गए हैं । सबसे स्पष्ट प्रयास अग्नि पुराण में प्रकट होता है जहां भद्र प्रासाद और श्रीजय प्रासाद के बीच भेद का कथन है । कहा गया है कि भद्र प्रासाद में वीथी के समान द्वारवीथी होती है । द्वारवीथी में वीथी का अग्रभाग नहीं होता । श्रीजय नामक प्रासाद की द्वारवीथी में वीथी का पृष्ठभाग नहीं होता । भद्र प्रासाद की द्वारवीथी में वीथी के पार्श्वभाग नहीं होते । कथासरित्सागर की कथा में राजा विक्रमादित्य एक शूकर को पांच बाण मारते हैं । इसके पश्चात् वेताल उस शूकर का पेट फाड देता है जिस पर उसमें से एक पुरुष प्रकट होता है जो कहता है कि मेरा नाम भद्र है । इतने में एक विशालकाय हाथी प्रकट हो जाता है जिसे विक्रमादित्य एक बाण द्वारा धराशायी करता है । वेताल उसका भी पेट फाडता है । उसमें से एक पुरुष प्रकट होता है जो कहता है कि उसका नाम शुभ है । यह भद्र और शुभ शूकर और हाथी का रूप धारण करके कण्व ऋषि को डरा रहे थे जिस पर कण्व ने उन्हें शाप देकर शूकर और हाथी बना दिया । विक्रमादित्य द्वारा मृत शूकर का कण्ठ स्पर्श करने पर वह कृपाण बन गया और मृत हाथी के पृष्ठ का स्पर्श करने पर वह चर्म/ढाल बन गया । भद्र और श्री के सामञ्जस्य का उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण १.१३, तैत्तिरीय संहिता १.२.३.३, ३.१.१.४, ५.७.२.४, ५.७.२.५, अथर्ववेद ७.९.१( ७.८.१) आदि में भी है जहां भद्र से श्री की प्राप्ति का निर्देश है । जैमिनीय ब्राह्मण २.१०३ में भी भद्रश्रेयसी का उल्लेख है जहां भद्र द्वारा देव भद्र बने और श्रेयस् से श्री को प्राप्त हुए । जैमिनीय ब्राह्मण ३.१७२ में भी श्री को ही भद्र कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण १२.७.३.२२ में भी पयोग्रह के संदर्भ में भद्र और श्री का तादात्म्य कहा गया है । ऋग्वेद १०.७१.२ तथा नारायण पूर्वतापिन्युपनिषद ४.९ में भद्रा लक्ष्मी का उल्लेख आया है । अथर्ववेद १२.१.६३ में भूमि माता से प्रार्थना की गई है कि भद्र के द्वारा सुप्रतिष्ठित की प्राप्ति और दिव: कवि ( सूर्य? ) के सहयोग से श्री व भूति की प्राप्ति हो । अथर्ववेद ७.९.१( ७.८.१) में भद्र से श्रेयः की प्राप्ति का उल्लेख है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.५.४ में शिर को श्री व जिह्वा को भद्र कहा गया है । लेकिन भद्र और श्री में अन्तर केवल अग्नि पुराण और कथासरित्सागर द्वारा ही समझा जा सकता है जहां कहा गया है कि भद्र में अग्र और पार्श्व नहीं होते । इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि साधना की आरम्भिक स्थिति में बहुत सी भयानक स्थितियां प्रकट होती हैं जो साधना से विरत करने का प्रयास करती हैं । गौतम बुद्ध की साधना के आरम्भ में प्रकट हुई बाधाओं का विवरण बौद्ध साहित्य में भली प्रकार उपलब्ध है । यह अग्र हो सकता है । पार्श्व से अर्थ है साधना के फलस्वरूप प्रकट होने वाले हर्ष, शकुन आदि आदि । भद्र स्थिति में इनका भी निषेध है । स्कन्द पुराण ७.३.८ में शिव का गण भद्रकर्ण नमुचि असुर का वध करता है । नमुचि का अर्थ होता है ऐसा हर्ष जो एक बार आरम्भ होकर पीछा ही न छोडे । इससे संकेत मिलता है कि साधना का लक्ष्य ऐसी शक्ति प्राप्त करना है जिससे दुर्गुण समाप्त हों । ऐसा न हो कि साधक साधना से उत्पन्न हर्ष आदि में उलझ कर रह जाए । दूसरी ओर श्री के संदर्भ में अग्नि पुराण में कहा गया है कि उसमें पृष्ठ नहीं होता । पृष्ठ से तात्पर्य अचेतन मन से लिया जा सकता है । पौराणिक कथाओं में प्रायः भद्र और ध्यान, समाधि आदि में सम्बन्धों का उल्लेख आता है । स्कन्द पुराण ३.१.३२ में सिंह बने भद्र यक्ष का उद्धार तभी हो पाता है जब उसका ध्यानकाष्ठ ऋषि से संवाद होता है । ऋग्वेद १.११५.३ में सूर्य के भद्र हरित अश्वों का उल्लेख है जो द्युलोक से पृष्ठ पर आकर स्थापित हो गए । इस ऋचा का अर्थ पौराणिक व्याख्या द्वारा स्पष्ट हो सकता है । दीपावली पर्व पर गणेश और लक्ष्मी की पूजा एक साथ करने का विधान है । यह एक जिज्ञासा ही रही है कि इस पर्व पर गणेश और श्री की एक साथ पूजा के पीछे क्या रहस्य हो सकता है, क्योंकि पूरे वैदिक और पौराणिक साहित्य में इस सम्बन्ध में प्रत्यक्ष रूप से कोई प्रकाश नहीं डाला गया है, जबकि दीपावली के कृत्य में इसका महत्त्व सर्वविदित है । । ऐसा प्रतीत होता है कि इस संदर्भ में भद्र को गज - मुख गणेश का स्थान दे दिया गया है जबकि श्री को लक्ष्मी का । ऋग्वेद ८.९३.२८ में शतक्रतु इन्द्र से प्रार्थना की गई है कि वह हमारे लिए भद्र - अभद्र इष - ऊर्ज का भरण करे । दीपावली पर गणेश लक्ष्मी की अर्चना इस ऋचा की व्याख्या हो सकती है क्योंकि आश्विन् - कार्तिक मासों का नाम क्रमशः इष व ऊर्ज है । इसके अतिरिक्त, चातुर्मास यज्ञ के अन्त में शुनासीर यज्ञ होता है जिसके सम्बन्ध में कहा गया है कि इसका एक भाग शुनम् है और दूसरा सीर श्री के सम्पादन से सम्बन्धित है । तैत्तिरीय संहिता ४.७.३.१ में वसुधारा के संदर्भ में दिए गए उल्लेख से प्रतीत होता है कि शुनम् से आरम्भ करके श्री तक पहुंचने की लम्बी प्रक्रिया है क्योंकि वसुधारा के उल्लेख में क्रमशः शम्, मयः, प्रिय, अनुकाम, काम, सौमनस्, भद्र और श्री का उल्लेख है और ऐसा प्रतीत होता है कि यह क्रमिक अवस्थाएं हो सकती हैं । ऋग्वेद ६.१.१२ में पूर्वी इष: द्वारा अक्ष/पाप समाप्त करने की कामना की गई है । यद्यपि वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से भद्र और श्री के बीच सम्बन्धों का उल्लेख आता है, फिर भी भद्र से श्रेयस् की प्राप्ति कैसे हो सकती है, इसका उल्लेख परोक्ष रूप में ही किया गया है । जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, भद्र में पृष्ठ या अचेतन मन विद्यमान है जिसका पाक करके उसे श्री में रूपान्तरित करना है । अग्नि के समिन्धन से केवल भद्रता की प्राप्ति ही होती है ( ऋग्वेद १.९४.१४) । सोमयाग के कर्मकाण्ड में ओदन पाक का कार्य अन्वाहार्यपचन नामक अग्नि पर किया जाता है । अन्वाहार्यपचन को दक्षिणाग्नि भी कहते हैं ( अन्वाहार्यपचन पर टिप्पणी द्रष्टव्य है ) । अन्वाहार्यपचन की कुछ विशेषताएं हैं जैसे इसका अधिपति नल नैषध है । जो विशेषताएं पुराणों में राजा नल के चरित्र में प्रदर्शित हैं, वही इस अग्नि के विषय में भी समझनी चाहिएं । इस अग्नि का स्थान द्युलोक और भूलोक के बीच में अन्तरिक्ष लोक होता है । भूलोक में कोई भी कार्य प्रकृति के नियमों के अन्तर्गत, चांस पर, आकस्मिक रूप में होता है जबकि अन्वाहार्यपचन अग्नि पर आकस्मिक स्वरूप की तीव्रता कम हो जाती है । कहा जा सकता है कि यह शकुनि के बदले शकुन बन जाता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.४.४-६ में अग्नि के आधान के संदर्भ में कहा गया है कि असुरों ने पहले आहवनीय अग्नि का आधान किया, फिर गार्हपत्य का, फिर अन्वाहार्यपचन का । इससे उन्हें जिस श्री की प्राप्ति हुई, वह प्रतीची को चली गई व नष्ट हो गई । जब देवों ने अग्नि का आधान किया तो उन्होंने पहले अन्वाहार्यपचन का, फिर गार्हपत्य का और फिर आहवनीय का आधान किया । इससे उनकी श्री प्राची दिशा को गई । लेकिन प्रजा की प्राप्ति न हुई । फिर मनुष्यों ने अग्नि का आधान किया । - - - - - । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि श्री की प्राप्ति करनी है तो इन तीनों अग्नियों का आधान अनिवार्य है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.४.९.१ में उल्लेख है कि भद्र के लिए गृहप की व श्री के लिए वित्तप(वित्त की रक्षा करने वाले) की प्राप्ति करे । ऐसा लगता है कि यह कथन आत्मा और उसकी कलाओं के विषय में हो सकता है । कहा गया है कि आत्मा १६वी कला है और शेष १५ कलाएं उसका वित्त हैं । चूंकि चन्द्रमा की १५ कलाओं में क्षीणता व वृद्धि होती रहती है, अतः हो सकता है कि इस रोग से मुक्ति पाना ही श्री की प्राप्ति हो । कौशीतकि ब्राह्मणोपनिषद १.५ में प्राण रूपी एक पर्यङ्क /पलंग की कल्पना की गई है जिसके शीर्ष पाद भद्र - यज्ञायज्ञीय हैं । यहां यह उल्लेखनीय है कि सोमयाग में तृतीय सवन में यज्ञायज्ञीय सामगान ( यज्ञायज्ञा वो अग्नये गिरा गिरा च दक्षसे । प्र प्र वयं अमृतं जातवेदसं - - - - -) के पश्चात् ही यजमान में वरदान देने की सामर्थ्य आती है । यहां यज्ञायज्ञीय भी श्री का रूप हो सकता है । अन्यत्र यज्ञायज्ञीय साम को पुच्छ कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ३.१.१.४ में यज्ञ में दीक्षा ग्रहण के समय भद्रादभि श्रेयः प्रेहीति मन्त्र का उच्चारण यह संकेत करता है कि दीक्षा द्वारा भी भद्र से श्री की प्राप्ति हो सकती है । दीक्षा द्वारा यजमान माता के गर्भ की भांति आचार्य का गर्भ बन जाता है । पद्म पुराण ६.१५२.१५ में सूर्य बाला नामक कन्या को पाक हेतु ५ बदर देते हैं जिन्हें पकाने के लिए वह अपनी सारी देह को अग्नि का इन्धन बना देती है लेकिन बदरों का पाचन नहीं हो पाता । ऐसी ही कथा महाभारत शल्य पर्व ४८ में आती है जहां भरद्वाज - कन्या श्रुतावती इन्द्र से पाक हेतु ५ बदर प्राप्त करती है और अन्त में अपनी देह को ही अग्नि का इन्धन बना देती है । यहां यह संदेह होता है कि क्या बदर भी किसी प्रकार से भद्र का ही रूप हैं ? गर्ग संहिता ७.३२.५ में राजा भद्रश्रवा प्रद्युम्न से शकुनि असुर के वध की प्रार्थना करता है और प्रद्युम्न द्वारा शकुनि के वध हेतु पहले एक शुक का वध किया जाता है जिसमें शकुनि के प्राण निहित हैं और फिर शकुनि को अन्तरिक्ष में उठाकर बाणों द्वारा अन्तरिक्ष में ही मारा जाता है क्योंकि शकुनि को वरदान है कि वह भूमि का स्पर्श पाते ही जी उठेगा । यह कथा संकेत करती है कि भद्र स्थिति में शकुनि स्थिति का प्राबल्य होता है ( महाभारत में मायावी शकुनि को द्यूत विद्या में निपुण कहा गया है ) । ऋग्वेद २.४३.२ में शकुन/पक्षी से प्रार्थना की गई है कि वह हमारे लिए सर्व से (सर्वतो) भद्र बोले तथा कि वह हमारे लिए विश्व से पुण्य बोले । इसके पश्चात् कहा गया है कि जब शकुन बोले तो वह भद्र बोले और जब चुप रहे तो वह हमारी सुमति का वर्धन करे । डा. फतहसिंह के अनुसार जब हमारी इन्द्रियां बहिर्मुखी हैं तो वह सर्व स्थिति है । जब यह अन्तर्मुखी हो जाती हैं तो वह विश्व स्थिति है । उपरोक्त ऋचा से तो यह संकेत मिलता है कि भद्र का सम्बन्ध सर्व स्थिति से है । लेकिन इसके विपरीत प्रमाण ऋग्वेद १.१६६.९, २.२३.१९, २.२४.१६, २.३६.१५, ५.८२.५ से प्राप्त होते हैं जहां विश्व भद्रों के उल्लेख आते हैं । पुराणों में बलभद्र के उल्लेखों के संदर्भ में ऐसा प्रतीत होता है कि शरीर के परितः आभामण्डल/वाल का भद्र बनना आवश्यक है । ऋग्वेद १.१३४.४, ३.३९.२, ५.२९.१५, ९.९७.२, १०.८५.६ आदि में उषा द्वारा भद्र वस्त्र प्रदान करने अथवा उषा का भद्र वस्त्र होने के उल्लेख आते हैं । पौराणिक कथा में गौतम ऋषि निर्वस्त्र भद्र यक्ष को शाप देकर सिंह बना देते हैं । ऐसा संभव है कि वेद की ऋचाओं में वाल को ही वस्त्र का रूप दिया गया हो । शतपथ ब्राह्मण ३.१.२.२० में दीक्षा संस्कार में वस्त्र परिधान के संदर्भ में कहा गया है कि अदीक्षित होने के समय पाप वर्ण की पुष्टि होती है जबकि दीक्षित हो जाने पर भद्र वर्ण की । पुराणों में असुर राजा बलि के उपवाह्य के रूप में भद्र हस्ती का उल्लेख आया है । राजा बलि भी वाल का, आभामण्डल का प्रतीक हो सकता है । ऋग्वेद १.८९.१, १.१२३.१३, ४.१०.१, ४.१०.२, १०.२५.१, १०.३०.१२, तैत्तिरीय संहिता ४.३.१३.१ आदि में भद्र क्रतु का उल्लेख आया है जिसमें ऋग्वेद ४.१०.२, १०.२५.१ आदि में क्रतु के साथ दक्ष व ऋत शब्द भी प्रकट हुए हैं । ऐसा लगता है कि कथासरित्सागर में जो कथा विक्रमादित्य द्वारा शूकर के वध के रूप में कही गई है, वही तथ्य पुराणों में वीरभद्र द्वारा दक्ष यज्ञ/क्रतु के विध्वंस द्वारा प्रकट किया गया है । वैदिक तथा पौराणिक साहित्य में यज्ञ को एक वराह का रूप दिया गया है जिसके सभी अङ्ग यज्ञ के विभिन्न पात्रों से निर्मित हैं । यज्ञ को क्रतु में परिणत करने पर ऋग्वेद ४.१०.२ आदि से लगता है कि यह सत्य की अपेक्षा ऋत की अवस्था हो जाती है । फिर क्रतु को भद्र भी बनाना होता है । यह कहा जा सकता है कि दक्ष का यज्ञ यज्ञ नहीं, अपितु क्रतु है । क्रतु में पाप विद्यमान है जिसे निकाल कर उसे भद्र बनाना है । दक्ष क्रतु का अर्थ होगा वह जीवन यज्ञ जिसमें अधिकतम दक्षता प्राप्त करनी है और रव को न्यूनतम बनाना है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार कोई कार्य करते समय उस कार्य में कुछ न कुछ रव अवश्य उत्पन्न होता है । पौराणिक व वैदिक साहित्य का कहना है कि रव उत्पन्न होने का कारण पाप की विद्यमानता है । अतः भद्र दक्ष क्रतु वह होगा जिसमें रव विद्यमान न हो । यह उल्लेखनीय है कि वैदिक साहित्य में दक्षता की प्राप्ति को दक्षिण दिशा में स्थान दिया गया है । पाप के शमन को पश्चिम दिशा में स्थान दिया गया है और किसी कार्य को करने से पहले उसकी प्रेरणा प्राप्ति को पूर्व दिशा में स्थान दिया गया है । वायु पुराण ४१.८४ में पृथिवी को ४ महाद्वीपों में विभाजित किया गया है जिसमें पश्चिम दिशा में केतुमाल द्वीप की स्थिति कही गई है । इस कथन के अनुसार भद्र पूर्व दिशा में, भरत दक्षिण दिशा में व उत्तरकुरु उत्तर दिशा में होने चाहिएं ।
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